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पदावली में अभिव्यक्त विचारों का वर्गीकरण इसमें भिन्न प्रणाली से किया गया है । परम प्रभु परमात्मा , सन्तगण और मार्गदर्शक सद्गुरु , इन तीनों को एक ही के तीन रूप समझकर इन तीनों की स्तुति - प्रार्थनाओं को प्रथम वर्ग में स्थान दिया गया है । क्योंकि सन्त गरीबदासजी ने निर्देश दिया है साहिब से सतगुरु भये , सतगुरु से भये साध । ये तीनों अंग एक हैं , गति कछु अगम अगाध ॥ साहब से सतगुरु भये , सतगुरु से भये सन्त । धर धर भेष विलास अंग , खेलैं आद अरु अन्त ॥ द्वितीय वर्ग में सन्तमत के सिद्धांतों का एकत्रीकरण है । तृतीय वर्ग में प्रभु - प्राप्ति के एक ही साधन ' ध्यान - योग ' का संकलन है , जो मानस जप , मानस ध्यान , दृष्टि - साधन और नादानुसंधान या सुरत - शब्द - योग का अनुक्रमबद्ध संयोजन - सोपान है । चतुर्थ वर्ग में ' संकीर्तन ' नाम देकर तद्भावानुकूल गेय पदों के संचयन का प्रयत्न है । पंचम वर्ग में आरती उतारी गई है अर्थात् उपस्थित की गई है । साधकों की सुविधा का ख्याल करके नित्य प्रति की जानेवाली स्तुति - प्रार्थनाओं , संतमत - सिद्धान्त एवं परिभाषा - पाठ आदि को प्रारंभ में ही अनुक्रम - बद्ध कर दिया गया है और उसे स्तुति प्रार्थना का अंग मानकर उसी वर्ग में स्थान दिया गया है ।
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गन्तव्य स्थान की दिशा एवं वहाँ तक जाने के मार्गों तथा सहायक संवलों को बिना जाने और बिना लिये ही जो यात्री चल देता है , उससे गन्तव्य स्थल तक पहुँचने की कोई आशा ही नहीं की जाती , उलटे उसके रास्ते में ही भटकने और भटककर नष्ट हो जाने की सम्भावना होती है । यही बात ऐसे साधकों के लिए भी है , जिन्होंने ईश्वर - स्वरूप , उनकी प्राप्ति की युक्ति - युक्त साधन विधि तथा उसकी सफलता के हेतु सदाचार , सत्संग , सद्गुरु - सेवा आदि संवलों का बिना संचयन किये केवल भावुकतावश कुछ करने में अपने को लगा दिया है । सच्चे सदाचारी साधकों को यह स्पष्ट बोध होगा कि गागर में सागर की भाँति इस पदावली में इन सब ज्ञान - दिशाओं का निदर्शन है । साथ ही वे यह भी प्रतीत कर सकेंगे कि ऐसी शक्ति - संवेग - पूरिता वाणी केवल सन्तजन ही अभिव्यक्त करने में समर्थ हो सकते हैं । इसी श्रद्धा और विश्वास से हमें उत्प्रेरणा होती है कि साधनशील मुमुक्षु इससे सहायक प्रकाश प्राप्त करेंगे।
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