Product Description
आबाल ब्रह्मचारी बाबा ने प्रव्रजित होकर लगातार ५२ वर्षों से सन्त साधना के माध्यम से जिस सत्य की अपरोक्षानुभूति की है , उसी का प्रतिपादन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है । इतने लम्बे अरसे से वेद , उपनिषद् एवं सन्तवाणियों का अध्ययन तथा मनन एवं उनके अन्तर्निहित निर्दिष्ट साधनाओं का अभ्यास करते हुए परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंसजी महाराज इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानव मात्र सदाचार - समन्वित हो दृष्टियोग और शब्दयोग ( नादानुसंधान ) अर्थात् विन्दुध्यान और नादध्यान के द्वारा ब्रह्म - ज्योति और ब्रह्मनाद की उपलब्धि कर परम प्रभु सर्वेश्वर को उपलब्ध कर सकता है । इसी विषय का स्पष्टीकरण उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में किया है । साथ ही उन्होंने यह भी समझाने की भरपूर चेष्टा की है कि प्राचीन कालिक मुनि - ऋषियों से लेकर अर्वाचीन साधु - संतों तक की अध्यात्म - साधना पद्धति एक है । वेद - उपनिषदादि में वर्णित अध्यात्म- ज्ञान और कबीर , नानक , तुलसी प्रभृति आधुनिक सन्तों के व्यवहृत आत्मज्ञान में ऐक्य या पार्थक्य है ? - इस भ्रम के निवारणार्थ ' वेद - दर्शन - योग ' का प्रणयन किया गया है । अथवा सीधे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि प्रस्तुत पुस्तक उपर्युक्त ऐक्य वा पार्थक्य के असमंजस को मिटाकर पूर्ण सामंजस्य की स्थापना करती है ।
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